“लला कौन के घर जानो है”(कविता)
इस बार
नहीं मिला
वो बूढ़ा आदमी
लपेटे रखता था जो
छोटी सी धोती
काले, छरहरे
अपने जिस्म पर।
करता था जो स्वागत
अपनी चमकती हुई
छोटी सी आँखों से
छोड़ आता था
हमें हमारे घर तक
हँसते- बतियाते
कुछ क़िस्से सुनाते
प्रेम बरसाते।
ढूँढती रही नज़रें
अबकी बार
पूरे नानी गाँव में
कभी मोबाइल में मस्त
लड़को के पीछे
कभी हाथी,फूल,पंजे के
पोस्टरों के बीच
उस बूढे को
जो ताँगे से उतरते ही
पूँछ लेता था
लला कौन के घर जानो है?
अश्वनी राघव “रामेन्दु”
15/05/2017
Nice
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संवेदनहीन होते जा रहे समाज मे एक संवेदना से भरी कविता !
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शुक्रिया जी
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मीठी सी कविता है.
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शुक्रिया, सच्चाई लिख दी है। गाँव गया था।थोड़े दिन पहले तो सब याद आ गया।
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,आपकी यादों से जुड़ी अच्छी कविता है.
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Very nice.
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शुक्रिया इंदिरा जी
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Kya baat lalla kaun ke ghar jaano hai…..aise log bhulte kahaan…..hain….bahut khub
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जी, ये ऐसे लम्हे होते हैं जिनकी याद हमेशा के लिये बनी रहती है।
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Nice one!!
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Thsnks Khushboo ji
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Bahut hi achchi abhivakti he aapki poem me.mujhe mera gaanv yaad aa gaya…..wonderful ashwaniraghav.
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Nice sir
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Thanks rajender ji
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आपकी कविता बहुत अच्छी है।
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वाह ! हृदयस्पर्शी…
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शुक्रिया अमित जी
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