कर्ज़दार किसान !!
मध्यप्रदेश में आंदोलनरत किसानो की पुलिसिया गोलीबारी में हुई मौत के बाद किसानो के मुद्दों पर सरकारें भी चिंतित दिखने का उपक्रम करने लगी हैं और आनन-फानन में किसानो को राहत पहुँचाने के कुछ कदम भी उठाये गए हैं। जिनमें कर्जमाफी सबसे अहम् हैं इसके अलावा फसलो के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कड़ाई से लागू करने पर भी सरकार ने जोर दिया है। किसानो द्वारा किया गया आन्दोलन सिर्फ कर्जमाफी के लिये नहीं था बल्कि लम्बे समय से सरकारो द्वारा इनके माँगो पर ध्यान नहीं दिए जाने का गुस्सा भी था।
नोटबंदी ने किसानो और व्यापारियों के बीच के विश्वास को तोड़ दिया है। जरुरत के समय बेचीं गई फसल की कीमत का भुगतान व्यापरियों ने नक़द में न करके चेक से किया। बैंको में नगदी न होने के चलते ये चेक महीनो केवल कागज़ का एक टुकड़ा बनकर रह गए। नोटबंदी से पैदा हुई समस्याओं के कारण जहाँ एक ओर फसल के सही दाम नहीं मिले वहीँ दूसरी ओर लिए गए उधार का ब्याज प्रतिदिन बढ़ता गया।छोटे किसानो को गाँव के साहूकारों से ही ब्याज पर रकम लेने पर मजबूर होना पड़ा जिसका ब्याज़ चुकाना अब इनके लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है।
अर्थ,अर्थव्यवस्था और ई-बैंकिंग से अनजान इन गरीब किसानो के सामने अपने परिवार का भरण-पोषण करना ही सबसे बड़ी प्राथमिकता है जिसके लिए उन्हें क़र्ज़ लेना पड़ता है और ये लोग ब्याज और मूल के चक्रव्यूह में उलझे जाते हैं। नेशनल सैम्पल सर्वे की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के तीस फीसदी ग्रामीण परिवारो पर औसतन एक लाख तीन हज़ार रुपये का क़र्ज़ है।
सिंचाई के साधनो की कमी, जोत का लगातार छोटा होता जाना, फ़सल का बीमा न होना और किसानों के लिए सामाजिक सुरक्षा की कोई योजना न होना भी किसानों की बिगड़ती हालत के लिए जिम्मेदार हैं। जो भूमिहीन किसान हाथ-बटाई पर कृषि करते हैं उनके लिए खेती करना अब घाटे का सौदा हो गया है। धीरे-धीरे किसान अब खेती छोड़ शहरो की तरफ़ भागकर रोज़गार तलाश रहे है। जो छोटे किसान गाँव में ही बसे हैं वह बढ़ते ब्याज़ के चँगुल में फँस आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर हो रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रतिदिन लगभग तीस किसान किसी न किसी कारण से आत्महत्या कर रहे हैं जो कि एक विकट परिस्थिति है। सत्ताधारी राजनीतिक दल के नेता चाहे इन आत्महत्याओं के पीछे अलग अलग कारण गिनवाते रहें पर इस बात की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसान आन्दोलन को गति पकड़ते देख महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश की सरकारों ने तुरन्त सक्रियता दिखाते हुए किसानो की राहत के लिये कई घोषणाएँ कर दीं।
पिछले लोकसभा चुनावो में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में ये वायदा किया था कि अगर वह सत्ता ने आई तो स्वामीनाथन रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू करके ये सुनिश्चित करेगी कि किसानो को उनकी लागत का डेढ़ गुना ज्यादा दाम मिले पर सत्ता में आते ही सरकार ने अपना वायदा भुला दिया। अगर स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को मान लिया जाता तो किसानो को आन्दोलन करने पर मजबूर न होना पड़ता।
किसानो की माँग को गैरजरूरी साबित करने के सरकार द्वारा किये जा रहे प्रयासों के गुस्साए किसान अब कई राज्यों में आर-पार की लड़ाई लड़ने के मूड में हैं। किसानो की कर्जमाफी से अर्थ-व्यवस्था पर पड़ने वाले बोझ का रोना रोने वाले विशेषज्ञो के माथे पर तब एक शिकन भी नही दिखती जब कॉरपोरेट जगत का अरबो रुपये का क़र्ज़ तुरंत माफ़ कर दिया जाता है।अब तो बेडलोन के नाम पर बड़े कॉरपोरेट कर्ज़ों की एकमुश्त माफ़ी भी दी जा रही है।
मौजूदा सरकार के सभी नियम मध्यम और उच्च वर्ग को केंद्र में रखकर बनाये जा रहे हैं जबकि सरकारो को नियम और कानून बनाने से पहले सभी वर्गों की जरुरतो का ध्यान रखने की जरुरत है। सिंचाई सुविधाओं का विस्तार, न्यूनतम समर्थन मूल्य का कड़ाई से पालन, फसल बीमा योजना, तर्कसंगत मुआवजा, किसानो के लिये सामाजिक सुरक्षा योजना, बिचौलियों से मुक्त बाजार ऐसे कई उपाय हैं जिनपर सरकार को काम करने की जरुरत है। भारत शुरू से ही कृषि-प्रधान देश के रूप में जाना जाता रहा है कहीं ऐसा न हो कि गलत नीतियों के चलते अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ रहे ये किसान हाशिये पर रह जाएँ। जिसका नुकसान हम सभी को होने वाला है।
अश्वनी राघव “रामेन्दु”
14/06/2017
Bilkul sahi kaha ……kisaano ki durdasha ….desh ki durdasha shayad kab samjhenge Raajneta…..
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सही कहा मधुसूदन जी एक तरफ किसान क़र्ज़ में डूबे हुए हैं वहीँ बड़े बड़े उद्योगपतियों का क़र्ज़ सरकार तुरंत माफ़ कर रही है।
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चुनाव के लिए पैसे किसान और मजदुर तो देते नहीं है फिर इनकी कौन पूछे—!चुनाव जातिवाद धर्मवाद से निकल जाता है—–मरे किसान—सांत्वना मिल ही जाता है और क्या चाहिए–!कोई किसान का नहीं परंतु किसान मजबूर खेत छोड़कर कहाँ जाए—?
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बिलकुल सही
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किसान के बारे में सभी बात करते है लड़ाईया लड़ी जाती है आन्दोलन होते हैं कोई
एक आन्दोलन बताइए जो मजदूर के लिए किया गया हो ।
एक ऐसा मजदूर बताइए जिसका 10000 दस हजार कांग्रेस भीतर लोन माफी हुआ ।
सरकार कोई भी रही हो साहब मजदूर की आवाज कोई नहीं उठाना चाहता नारी प्रतिपक्ष ना विपक्ष ना मीडिया ना कोई पत्रकार ।👏
☝केवल राजनीति हो रही है
केवल किसान की बात होती है
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ये विकास का कैसा मॉडल हैं जहाँ कॉरपोरेट जगत के मात्र बारह लोग दो लाख करोड़ का क़र्ज़ लिये बैठे हैं वहीँ दूसरी ओर लाखो किसान पचास-पचास हज़ार के क़र्ज़ न चुकाने पर आत्महत्या करने पर मजबूर हैं।
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किसान की मार्मिक कथा …😢
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शुक्रिया पूनम उपाध्याय जी
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आभार ashwani जी…
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किसानो की स्थिति की अच्छी जानकारी देते है, दुख है कि 60 वर्षो मे हमारे कृषि प्रधान देश मे कृषि और कृष्कों की स्थिति मे कुछ सुधार नही हुआ है।
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जी, जहाँ चंद व्यवसायियों के अरबों के क़र्ज़ मिनटों में माफ़ हो जाते हैं वहीँ दूसरी ओर किसानो की आत्महत्या के बाद भी सत्ता गूँगी-बहरी बनी रहती है।
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