प्रतिबिम्ब…

गाँव में कभी
किसी ने
मेरा नाम नहीं पूँछा
सिर्फ़ पिता का
हाल पूँछा
सब कहते थे
लगता हूँ पिता सा
मुझे नहीं लगा
कैसे लगता
मैं विद्रोही
पिता नियम वाले
मैं उद्दंड ,पिता शांत
मैं झल्लाया रहता
पिता मुस्कुराते रहते
बीस की उम्र में
पता चला
पिता कविता लिखते थे
और डायरी भी
पहली बार लगा
कुछ मिलता है
थोड़ा सयाना हुआ
तो जाना
पिता अपनी परेशानी
किसी से नही कहते
हमेशा किसी उधेड़बुन में
लगे रहते, और
इसी उधेड़बुन में
वो चले गए ।
अब मैं भी
उधेड़बुन में
रहता हूँ
परेशानी में
मुस्कुरा लेता हूँ
जान गया हूँ
मैं पिता जैसा
दिखता नहीं हूँ
मैं पिता से
मिलता भी नहीं हूँ
बल्कि पिता ख़ुद हैं
मेरे अंदर
और मैं उनका
प्रतिबिम्ब मात्र।

अश्वनी राघव “रामेन्दु”


26/06/2022

5 thoughts on “प्रतिबिम्ब…

  1. पिता का अक्स हमें स्वयं के भीतर ही मिल सकता है यह शाश्वत है।बहुत खूब

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